अष्ट योगिनी साधना

अष्ट योगिनी साधना एक तांत्रिक साधना का हिस्सा होती है, जिसमें योगिनियों की उपासना और उनके साथ साधना की जाती है। यह एक पारम्परिक तांत्रिक प्रथा है जो मुख्य रूप से भारतीय तंत्र शास्त्र के अंतर्गत आती है। इस प्रथा का मुख्य उद्देश्य आध्यात्मिक उन्नति और अद्वितीय अनुभव होता है।

अष्ट योगिनी साधना की शुरुआत अच्छी तरह से गुरु के मार्गदर्शन में करनी चाहिए, क्योंकि यह विशेष ज्ञान, आध्यात्मिक अनुभव और तंत्रिक तकनीकों की आवश्यकता होती है। यह अष्ट योगिनी साधना तांत्रिक साधना होती है, और इसमें विशेष ध्यान, मंत्र जप, पूजा, ध्यान, और विशेष प्रतिमा उपासना के तरीके शामिल होते हैं।

यह जरूरी है कि आप इसे किसी विशेष गुरु के निर्देशन में ही करें और यह भी याद रखें कि तंत्रिसाधनाएं अनुचित या गलत उपयोग के लिए नहीं की जानी चाहिए। सही मार्गदर्शन और श्रद्धा के साथ, यह अष्ट योगिनी साधना आपके आध्यात्मिक उन्नति में मदद कर सकती है, लेकिन ध्यान दें कि यह एक गहरी और सावधानीपूर्वक साधना है जो अनुभवित गुरु के साथ ही करनी चाहिए।

यहाँ पर अष्ट योगिनी साधना विधि बताई गई हे जो इस प्रकार हे।

(१) सुरसुन्दरी  ( २) मनोहरा, (३) कनक्वती (४)कामेस्वरी

(५)  रतिसुन्दारी (६) पद्मिनी, (७) नटीनि और (८)मधुमती।

अष्ट योगिनी साधना

अष्ट योगिनी साधना

सुरसुन्दरी योगिनी साधन

मंत्र

ॐ ही आगच्छ सुरसुन्दरि स्वाहा।

विधि

उपर्युक्त मंत्र का ४१ दिन तक रात १२ बजे जाप करे हररोज  ५  माला   करे   सुरसुन्दरी  सिद्ध  हो  जाएगी।

मनोहरा योगिनी साधन

पत्नी  रूप  में  सिद्ध  हो  जायें, तब साधक को चाहिये कि वह अपनी  पत्नी प्रथया अन्य किसी स्त्री के साथ सहवास  न  करे   और  उससे  प्रामक्ति  को   त्याग दे। अन्यथा देवी कुल उग्र हो जाती हे।

साधक    को   चाहिये  कि   वह   नदी-तट    पर   जाकर स्नानादि     नित्य- क्रियाओ   को  समाप्त कर पूर्वोक्त साधन    के   अनुसार न्यास आदि सब कार्यो को करे। फिर  चन्दन  द्वारा  मंडल  अंकित  करके उस मष्डल में  देवो का मंत्र लिखे । मन्त्र यह है-

मंत्र

ॐ ह्री मनोहरे आगच्छ स्वाहा।

साधन विधि

मन्त्र लेखनोपरान्त मनोहरा योगिनी  का ध्यान करे। ध्यान के  समय चिन्तन का स्वरूप निम्नानुसार हो-

देवी  के  नेत्र  हिरण के नेत्रों के समान सुन्दर, मुख शरद चन्द्र मा के समान सुशोभित, ओठ बिम्बाकल के समान  अरुण  वर्ण,  सांग, सुगन्धित तथा चन्दन से अनुनिष्त,  श्रेष्ठ आभूषण,  वस्त्रादि धारण किये हुये। अत्यन्त स्थल स्तन तथा शरीर का वर्ण श्याम है। वे

विचित्र वर्ण वाली योगिनी कामधेनु के समान साधक को समस्त मनोभिलाषाओं को पूर्ण करती हैं।

चिन्तन  के इस स्वरूप का निम्नलिखित  श्लोकों में वर्णन किया गया है-

कुरंगनेत्रां     शरदिन्दुवस्त्रां    बिम्बाधर    चन्दन गन्थलिप्तान,   चीनांशुको  पीनकुचा मनोशा स्यामां सदा कामदुधा विपित्राम,

इस प्रकार योगिनी देवी का ध्यान  करके, विधिपूर्वक पूजन कर, मन्त्र का जप करना चाहिये । अगर,  धूप, दीप,  गंध, पुष्प, मधु और ताम्बुल आदि से मूल मन्त्र द्वारा पूजन करे । तदुपरान्त मूल मन्त्र का प्रतिदिन दस सहस्त्र की संख्या में जप करे।

इस  तरह  एक मास  तक निरन्तर जप करता रहे। मास  के  अंतिम  दिन में प्रातःकाल से मन्त्र जपना पारंभ  करके  दिन  भर जप करता रहे । अर्ध रात्रि तक अप करते रहने पर मनोहरा योगिनी साधक को

दृढ प्रतिज्ञ  जानकर, प्रसन्नतापूर्वक उसके पास आती है  तथा  साधक  से  कहती  है तुम्हारे मन में जो अभिलाषा हो, वह वर मांग लो।

उस  समय  साधक  फिर  से देवी का ध्यान करके पाचादि उपचार से उनका पूजन करे।

इस  योगिनी की पूजा में ही मन्त्र से प्राणायाम तथा हा  अनुष्ठा- भ्या नमः  इत्यादि  प्रकार से कराग्यास करना चाहिये। तथा  साधक  सावधान  होकर  सोमांस द्वारा बलि प्रदान  पूर्वक  चन्दन  के  जल एवं अनेक प्रकार के पुष्पों से मनोहरा देवी का पूजन करे तथा अपने मन की  अभिलाषा  योगिनी  के  समक्ष प्रकट करे। इस प्रकार साधन  करने से योगिनी प्रसन्न होकर साधक के मन की सब अभिलाषा को पूरा करती है तथा उसे प्रतिदिन  सो स्वर्ण मुद्रा प्रदान करती है। साधक को चाहिये कि उसे योगिनी द्वारा जो धन प्राप्त हो, सब को  व्यय  न  कर  दे,  बचाके  रखे। कयोंकि कुछ

भी  न  बचाने  पर देवी क्रूर होकर साधक को फिर कुछ नहीं देती।

इस  योगिनी  का  साधन करने वाला व्यक्ति अन्य स्त्री  को  त्याग  दे। इस साधन के प्रभाव से साधक अव्याहतमति होकर सर्वत्र विवरण कर सकता है। यह योगिनो  साधन  सुरासुरगणों के पक्ष में भी अत्यन्त गोपनीय है।

कनकवती योगिनी साधन

साधक  को  चाहिये कि वह वट वृक्ष के नीचे बैठकर कनकवती  योगिनी  का  पूजन  करे । ह्रीं  मन्त्र से प्राणायाम तथा ह्रीं अंगुष्ठाभयं नमः इत्यादि प्रकार से करान्यास  करे ।  स्वच्छ  होकर  सधोमंस   द्वारा बलि  प्रदान  पूर्वक पूजा करे । उच्छिष्ट रक्त द्वारा प्रर्य  प्रदान  करके  प्रतिदीन  पूजा  करनी  चाहिये।

इस  योगिनी  के  ध्यान का स्वरूप निम्नानुसार है-

यह देवी  प्रचण्नड वदना है, अधर पके हुए विम्बाकृत के  समान  रक्त  वर्ण   हैं  तथा  इनके  वस्त्रादि भी  सालवर्ण के है। यह बालिका रूपिणी तथा साधक को सम्पूर्ण कामनायें देने वाली है।

चिन्तन  के  हम स्वरूप का निम्नलिखित श्लोक में वर्शन किया गया है-

अष्ट योगिनी साधना की सम्पूर्ण जानकारी 

प्रचण्टवदना  देवी  पनव विम्दादरा प्रिये।

रक्ताम्बरधरां बाला  सर्वकामरदां सुभाम् ।

योगिनी  के  उक्त  स्वरूप  का  ध्यान  करते  हुए प्रतिदिन  दस सहस्त्र की संख्या में मन्त्र जप करना चाहिये।

मन्त्र

ॐ ह्रीं हुं रक्षकर्मणि आगच्छ कनकवति स्वाहा ।

इस  मन्त्र  का सात दिन तक पूजन और जप करते हुये  पाचवें  दिन  यथाविधि पूजन करे तथा मनोहर बलि प्रदान पूर्वक आधी रात तक मन्त्र का जप करे। उस  समय  देवि  साधक को  द्रढ़ प्रतिग्न जानकर उसके घर आती  है। तब साधक को  देवी का पूजन करना  चाहिये । इस साधन में योगिनी अपनी सभी कामों सहित साधक की  भार्या  होकर उसे विविध प्रकार की अभिलाषित भोग्य  वस्तुये  प्रदान करती  हैं  या अपने आभूषण वस्त्रादि  का परित्याग कर, अपने घर को चली जाती हैं और फिर प्रतिदिन आती रहती हैं।

विद्वान्  साधक  को  चाहिये  कि इस प्रकार सिद्धि करके  अपनी   भार्या  (पत्नी)  का  परित्याग कर, कनकावती योगिनी का भजन परे।

कामेश्वरी योगिनी साधन

साधक  को  चाहिये कि वह पूर्वोक्त विधि से पूजादि कर  शोभाय-  मान भोजपत्र के अपर गोरोचन द्वारा सर्वालंकारों से अलंकृत देवी की प्रतिमूर्ति  का  निर्माण करे, फिर शैया पर बैठकर एकाग्रचित्त से मूल मन्त्र का जप करे । मंत्र यह है-

ॐ ही आगच्छ कामेश्वरि स्वाहा।

इस  मंत्र  का  एक मास  तक प्रतिदिन एक सहस्त्र संख्या  में जप करना चाहिये। इस योगिनी की पूजा और  मन्त्र जप के समय वृत एवं मधु द्वारा दीपक जलाना उचित है। देवी के स्वरूप का निम्न प्रकार से ध्यान करना चाहिये-

कामेश्वरी  देवी चन्द्रमा के समान मुखवाली हैं, उनको आँखे खंजन की भ्रांती चंचल  हैं और ये सदैव चंचल गति  से  विचरण  करती  रहती हैं। उनके हाथों में पुष्पबाण है।

चिन्तन  के  इस स्वरूप का निम्नलिखित श्लोक में वर्णन किया गया हे।

कामेश्वरी  शशांकास्यां  चनत्यञ्जनलोचनाम्,

सदा लोलगति कान्तां कुसुमास्वशिलीमुखम् ।

इस  विधि से ध्यान, पुजन और मन्त्र का जप करने से  कामेश्वरी  योगिनी प्रसन्न होकर साधक के पास आती  है  और साधक  से  कहती हैं कि मैं तुम्हारी किस  आज्ञा  का पालन करूं? उस समय साधक क चाहिए  कि  यह पत्नी भाव से योगिनी का पाद्यावि द्वारा पूजन करे।

ऐसा होने पर देवि अत्यन्त प्रसन्न होकर साधक को परितुष्ट करती है तथा अन्नादि अनेक भोज्य पदार्थों द्वारा  उसका  पति  के समान पालन करती हैं। वे साधक  के  समीप  रात्रि  बिताकर  ऐश्वर्यादि सुख- योग  की  सामग्री  विपुल धन तथा अनेक प्रकार के वस्त्रालंकार देकर प्रातःकाल चली जाती हैं। इस तरह प्रत्येक  रात्रि  में  वे  साधक के पास आती हैं और उसकी  इच्छानुसार सिद्धि प्रदान करती हैं।

रतिसुन्दरी योगिनी साधन

साधक  को  चाहिए कि वह सर्वप्रथम रेशमी वस्त्र में योगिनी की प्रतिपूर्ति अंकित  करे। ध्यान में देवी का जो स्वरूप कहा गया है,

उसी के अनुसार प्रतिमूर्ति बनानी चाहिए।

ध्यान का स्वरूप इस प्रकार है-

रतिसुन्दरी योगिनी स्वरों के समानवर्ण वाली गौरांगी  तथा  वायजेव,  भाजयन्त,  हार  आदि सब प्रकार के अलंकारों  से  अलंकृत  है। उनके दोनों नेत्र बिरे हुए कमल के समान सुन्दर है।

ध्यान  के  इस  स्वरूप  का निम्न श्लोक में वर्णन किया गया है-

सुवर्णा   गोरागी   साल   जारभूषिताम् ।

नूपुरीगदहाराव्या रम्या च पुष्कर क्षणाम् ।।

इस  प्रकार देवी स्वरुप का चिन्तन कर पाय, चन्दन एवं  चमेली  आदि के पुष्पों से पूजन कर, मूल मन्त्र का जप करना पाहिए।

मूल मन्त्र यह है-

ॐ ह्रीं आगच्छ रतिसुन्दरि स्वाहा।

इस मन्त्र  का प्रतिदिन आठ सहस्त्र  की  संख्या में जप करना चाहिए।

तदुपरांत  मूलमन्त्र  से  गूगल,  धुप और दीप प्रदान करना चाहिए।

एक  मास  तक  इस  प्रकार  जप करके महीने के अन्तिम  दिन  में फिर पूजन करना चाहिए और घी का  दीपक,  गन्ध, पुष्प, ताम्बुल निवेदित करके ‘रति सुन्दरी  योगिनी’  के  आगमन  की  प्रतीक्षा  करनी चाहिए।

जब  तक  देवी न आये, तब तक जप करना है। इस प्रकार  साधक  को दृढ़ प्रतिज्ञा जानकर योगिनी देवि रात्रिकाल  में आती हैं। उन समय साधक को चाहिए कि  वह  चमेली  के  फूलों  से  रचित माला द्वारा भक्तिपूर्वक  योगिनी का पूजन करे । उस स्थिति में देवी  साधक  से  संतुष्ट होकर, उसे रति एवं भोज्य पदार्थ प्रदान कर सन्तुष्ट करती हैं तथा उसकी भायाँ (पत्नी)  होकर  अभिलाषित वर देती हैं। देवी साधक के  समीप  राषि  व्यतीत  कर प्रातःकाल  के समय अपने वस्त्राभूषण  त्याग  कर  चली  जाती है, फिर साधक  की  भावानुसार  प्रतिदिन  आती-जाती बनी रहती है।

पद्मिनी योगिनी साधन

साधक  को  चाहिए  कि  यह  अपने घर के किसी एकान्त  स्थान  में  अथवा  शिव मन्दिर के समीप पूर्वोक्त  विधि  से  पूजादि कर चन्दन द्वारा मंडल द्वारा अंकित करे और उस मंडल में पद्मिनी योगिनी के मूल मन्त्र को लिखे। मूल मंत्र यह है-

ॐ ही आगच्छ पद्मिनी स्वाहा।

निम्नलिखित  अनुसार  देवी  के स्वरूप का चिन्तन करना चाहिए-

पद्मिनी  योगिनि का मुख कमल के समान सुन्दर हे उनका  शरीर  अत्यंत  कोमल  तथा स्याम वर्ण है। उनके  दोनो स्तन उन्नत तथा स्थूल है ।उनके होठो  पर सदैव मुस्कान विराजती रहती है। उनके नेत्र लाल कमल जेसे हे।

निम्नलिखित श्लोक  में देवी के ध्यान के स्वरूप का वर्णन किया गया है-

पद्मानना श्यामवर्णा पोनोतुंग ग पयोधराम् ।

कोमलांगी  स्पेरमुखी  रक्तोत्पलदसेक्षणम् ॥

उपर्युक्त  विधि  से  ध्यान करते  हुए प्रतिदिन एक सहस्त्र  की  संख्या  में  मूलमन्त्र  का  जप करना चाहिए।  इस  प्रकार  एक  मास  तक  जप  करके मास  के  अन्तिम  दिन की पूर्णिमा तिथि को यथा विधि पूजन  करके  अर्ध रात्रि तक योगिनी के मन्त्र का  जप  करता रहे। तब पद्मिनी योगिनी साधक को दृढ़  प्रतिज्ञा  मान  कर  उसके समीप आती है तथा उनका  सब  प्रकार  से  मंगल  बढ़ाती  हुई घर में उपस्थित  होती  है।  तदुपरान्त वे साधक की पत्नी बनकर  वे  विविध  प्रकार  के  भोग, भोज्य पदार्थ, आभूषण आदि  देकर सन्तुष्ट  करती हैं। वे पति के समान  साधक  का  पालन  करती  है। साधक को चाहिए  पद्मिनी योगिनी  के सिद्ध हो जाने पर अन्य स्त्री  का  परित्याग  करके  पद्मिनी  योगिनी का ही चिन्तन करे।

नटीनि योगिनी गायन

साधक  को  चाहिए  कि  वह  अशोक वृक्ष के नीचे जाकर  पूर्वोक्त विधि से स्नानादि कर मूल मन्त्र से नटीनि योगिनी का पूजन करे।

मूल मंत्र यह है-

ॐ ही नटीनि स्वाहा।

पुजन  के  समय  देवी के निम्नलिखित सवरूप का ध्यान करना चाहिए-

नटिनी योगिनी का रूप लावण्य और तीनों भुवनों को मोहित कर रही  है। ये  गौरवर्णि   विचित्र,  विविध अलंकारो  से सुसज्जित, एवं नतर्की  रूप धारिणी है।

निम्नलिखित  श्लोक में नटीनि योगिनी के ध्यान के स्वरुप का वर्णन किया गया हे

त्र्लोक्यमोहिनी  गौरी  विचित्राम्बरधरिणीम।

विचिशतालुक्रांत रम्या  नतंकीवेषधारिनिम ।

उक्त  विधि से ध्यान करके प्रतिदिन एक सहस्त्र की संख्या  में  मूल मंत्र का जप करे तथा पंचोपासर से देवी  की  पूजा  कर,  धुप निवेदीत  कर,  गंध, पुष्प, ताम्बुल  आदि प्रदान करे। इस प्रकार एक मास तक पूजन और मंत्र का जप करना है। महीने के अन्तिम दिन  महा पूजा  करे। उस दिन अर्ध रात्रि के समय नटिनी योगिनी आकर साधक को भय दिखाती है, पर साधक  को  चाहिए  कि वह भयभीत और डरे बिना मन्त्र का जप करता रहै। उस समय देसी साधक की दृढ प्रतिग्ना जानकर  उसके घर गमन करती है और सम्पूर्ण विद्यायों को ज्ञात देवि मुस्कराती हई साधक से कहती हे की  तुम अपना अभिलाशीत वर मांगो । देवी  का  वचन सुनकर, साधक अपने मन को स्थिर करके उन्हें अपनी माता, बहन प्रथमा पत्नी के सबंध में सम्बोधित करे तदनुसार आचरण करे तथा अपनी भक्ति द्वारा  देवी को सन्तुष्ट करे। उस समय देवी सन्तुष्ट होकर साधक  के मनोरथ को पूर्ण करती है।

यदि साधक देवी का मातृभाव में भजन करता है तो उसका  पुत्र के समान पालन करती है और प्रतिदिन सौ  स्वर्णमुद्रा तथा अभि-लाषित पदार्थ प्रदान करती है।

यदि साधक  देवी  का बहन भाव में भजन करता है तो उसके  लिए प्रतिदिन माग-कन्या एवं राक-कन्या लाकर देती है और उसे भूत, भविष्यत, वर्तमान तीनों काल की घटनाओं का ज्ञान कराती रहती हे।

यदि  साधक देवि का पत्नी भाव में भजन करता है तो  वे उसे प्रतिदिन विपुल धन प्रदान करती है तथा अन्नादि  नाना  प्रकार  के उपचारों द्वारा सौ स्वर्ण मुद्रा प्रदान करती हे।

मधुमती योगिनी साधन

साधक  को चाहिए कि वह भोजपत्र पर कुकुम द्वारा स्त्री  की  प्रतिमूर्ति  बनाकर  उसके  बाह्य भाग में अष्टदल  कमल  अंकित  करके  न्यासादि करे और उसमें  प्राण प्रतिष्ठा करके प्रसन्नचित से  देवी  का

ध्यान करे।

देवी के ध्यान इस प्रकार बताया गया है-

मधुमती योगिनी देवी विशुद्ध स्फटिक के समान शुभ्र वर्ण वाली हैं। अनेक प्रकार के आभूषणों से सुशोभित तथा  पावजेव, हार, केयूर एवं रत्न जटिल कुण्डलों से सुसज्जित है।

निम्नलिखित  श्लोक  में मधुमती योगिनी के ध्यान के स्वरूप का वर्णन किया गया है-

शुद्धस्फटिकसंकाशा नानालंकारभूषिताम् ।

मञ्जीरहारकेपूररत्नकुण्डलमणिताम् ।।

इस  प्रकार  देवी  का ध्यान करते हुए प्रतिदिन एक सहस्त्र  की  संख्या  में  मूल  मन्त्र का जप करना चाहिए। मूल मन्त्र इस प्रकार हे।

ॐ हीं आगच्छ अनुरागीणि मैथुनप्रिये स्वाहा ।

प्रतिपदा  तिथि  से  साधन  प्रारम्भ करके पुष्प,धूप, दीप,  नैवेद्य  आदि  उपहारों  सहित तीनों संध्या मे  देवी  का पूजन करे। इस प्रकार एक मास तक पूजन और  मंत्र  जाप  करके  पूर्णिमा  के  दिन  गंधादी उपचारो  से देवी का पूजन करे तथा धृत का  दीपक जला  कर  और  पूजा  देकर दिन-रात मंत्र का जप करे।

इस  तरह पूजन और जप करने पर प्रभात के समय देवि  साधक  के  समीप आती है और प्रसन्न होकर उसे रति एवं भोज्य पदार्थों द्वारा सन्तुष्ट करती है। तदुपरान्त  वे  साधक को प्रतिदिन देवकन्या दानव-कन्या,    नाग-कन्या,  यश-कन्या,   गन्धर्व-कन्या. विद्याधर-कन्या तथा विविध प्रकार के रत्न, आभूषण, चर्य,  गोयले  भोग्यादि पदार्थ प्रदान करती हैं। स्वर्ग, तथा पाताल  में  जो  भी  वस्तुयें विद्यमान हैं, उन सबको  साधक  की  इच्छानुसार लाकर उसे समर्पित करती  है  तथा  प्रतिदिन  सौ स्वर्ण-मुद्रा भी प्रदान करती है।

वे प्रतिदिन साधक को अभिलाषित कर अपने स्थान को  प्रस्थान  कर जाती है। देवी के प्रसाद से साधक निरामय  शरीर (स्वस्थ) होकर चिरकाल तक जीवित रहता है। देवि के वर से साधक सर्वज्ञ, सुन्दर कलेवर वाला  तथा  श्रीमान  होता  है। उसे सब जानने की सामर्थ्य  प्राप्त  हो  जाती है। यह प्रतिदिन योगिनी देवी  के  साथ क्रीडा कौतुकादि का सुख प्राप्त करता है।  यह  सब कार्यों में सिद्धि प्रदान करने वाला  हो जाता है। समस्त सिद्धियों में  मधुमती देवी अत्यन्त शुम हैं।

इस तरह साधक अष्ट योगिनी साधना करके उसकी सिद्धि हासिल कर सकता हे और तंत्र में पारंगत हो  सकता हे.

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