कामाख्या स्तुति

साधक कामाख्या स्तुति करके माता रानी  की कृपा पा सकता हे और मनोकामना पूर्ण कर सकता हे, साधना से पूर्व कामाख्या स्तुति करने से माता की साधना जल्द से जल्द सिद्ध हो जाती हे,

कामाख्या स्तुति

॥ श्री शिव – उवाच ॥

मन्त्रोद्धारं   प्रवक्ष्यामि  श्रृणु  देवि !  परात् परम् ।

यजज्ञात्वया साधयेत् सिद्धि देवानामपि दुर्लभाम् ॥१॥

मन्त्रस्यास्य    प्रतापेन    मोहयेदखिलं    जगत् ।

ब्रह्मादीन्  मोहयेद्  देवि ! बालकं जननी यथा ॥२॥

देव –  दानव –   गन्धर्व –  किन्नरादीन्  सुरेश्वरि !

मोहयेत्  क्षण –  मात्रेण   प्रजासु   नृपतिर्यथा ॥३॥

मन्त्रस्य   पुरतो   देवि !   राजानं   सचिवादयः ।

अन्ये  च  मानवाः सर्वे मेषादि – जन्तवो यथा ॥४॥

मोहयेन्नगरं     राज्ञः      सहस्त्यश्वरथादिकम् ।

उर्वश्याद्यास्तु  स्वर्वेश्या राज – पत्न्यादिकाः क्षणात् ॥५॥

स्तम्भनं   मोहनं   देवि !  क्षोभणं  जृम्भणं तथा ।

द्रावणं   भीषणं   चैव   विद्वेषोच्चाटने  तथा ॥६॥

आकर्षणं   च     नारीणां   विशेषेण    महेश्वरि !

वशीकरणमन्यानि    साधयेत्    साधकोत्तमः ॥७॥

अग्निः  स्तम्भति  वायुश्च  सूर्यो वारि – समूहकः ।

कटाक्षेणैव  सर्वाणि  साधकस्य  न  चान्यथा ! ॥९॥

जृम्भणान्तं त्यक्त – पाशं यात्रा – वारण – रोहकम् ।

वाम –  कर्ण –  युतं देवि ! नाद – बिन्दु – युतं पुनः ॥१०॥

एत्ततु  त्रिगुणी –  कृत्य  कल्पवृक्ष –  मनुं जपेत् ।

एकः वापि द्वयं वापि चतुर्थ  वा जपेत् सुधीः ॥११॥

कामाख्या –  साधनं  कार्यं सर्व – विद्यासु साधकैः ।

अन्यथा  सिद्धि – हानिः स्याद् विघ्नस्तेषां पदे – पदे ॥१२॥

किं  शाक्ता  वैष्णवाः  किं  वा शैवा गाणपत्यकाः ।

महा –  मायावृताः सरे  तैल  – यन्त्रे वृषा इव ॥१३॥

अस्याश्च   साधनं  देवि !  शाक्तानामेव  सुन्दरि !

नात्र   चक्रविशुद्धिस्तु  कालादिशोधनं  न  च ॥१४॥

कृते  च   नरकं  याति  सर्वं  तस्य   विनश्यति ।

क्लेश –  शून्यं  परं  देवि !  साधनं द्रुत –  पोषकम् ॥१५॥ 

॥ इति श्रीकामाख्यातन्त्रे देवीश्वर – सम्वादे द्वितीयः पटलः ॥

श्री  शिव ने कहा – हे देवि ! मैं श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ ‘ मन्त्रोद्धार ‘ को कहूँगा, जिसे जानकर देवताओं को भी सिद्धि प्राप्त होती है । सुनो । दे देवि ! इसके प्रभाव से  सारा  जगत्  मुग्ध  हो  जाता है । जिस प्रकार बालक  को  माता  मोहित  करती है या राजा जिस प्रकार  प्रजा  को वशीभूत कर लेता है, उसी प्रकार हे सुरेश्वरि ! देव, दानव, गन्धर्व, किन्नर आदि क्षण भर में वश में आ जाते हैं ।

इस मन्त्र के सामने, हे देवि ! राजा और मन्त्री आदि तथा  अन्य सभी मनुष्य भेड़ आदि पशुओं के समान वशीभूत हो  जाते हैं । हाथी, घोडे, रथ आदि के रहित सारी नगरी, राजा – रानी और उर्वशी आदि  स्वर्ग की अप्सरायें  भी  इस  मन्त्र  के  प्रभाव से क्षणभर में वशीभूत हो जाती हैं ॥

हे  देवी,  महेश्वरी !  श्रेष्ठ  साधक  इस  मन्त्र  से स्तम्भन,  मोहन,  क्षोभण,  जृम्भण,  द्रावण,  त्रासन, विद्वेषण,  उच्चाटन  और   विशेषकर  स्त्रियों  का आकर्षण तथा अन्य सबका वशीकरण करने में समर्थ होता है ।

कटाक्ष  मात्र से साधक अग्नि, सूर्य, वायु और जल – राशि – सभी को स्तम्भित कर देता है, इसमें सन्देह नहीं । हे प्राणप्रिये ! इस मन्त्र का ज्ञाता कामदेव के समान  जगत्  को  जीत  लेता है । तीनों लोकों में उसके   लिए  कुछ  भी   असाध्य  नहीं  रहता ।

नाद – बिन्दु से युक्त ‘ जृम्भणान्त ‘ = ‘ त ‘, ‘ यात्रा –  वाराण ‘ =  ‘ र ‘, ‘ वाम – कर्ण ‘ = ‘ ई ‘ अर्थात् ‘ त्रीं ‘ – इस  बीज को त्रिगुणीकृत करे – ‘ त्री त्रीं त्रीं । कल्पवृक्ष के समान इस मन्त्र का जप करें । बुद्धिमान् साधक एक, दो या चार बार इसका जप करें ।

सभी  विद्याओं  के  साधकों  को उक्त कामाख्या – मन्त्र  की  साधना  करनी चाहिए, अन्यथा सिद्धि की हानि  होती है और उनके पग – पग पर विघ्न होता है ।  शाक्त,  वैष्णव,  शैव  और  गाणपत्य  – सभी देवताओं  के  उपासक  महामाया  द्वारा उसी प्रकार  नियन्त्रित रहते है जिस प्रकार तेली का बैल । अतः हे  देवी !  उक्त  मन्त्र  की साधना शाक्तों के लिए आवश्यक  हैं ।  इस मन्त्र की साधना में चक्रादि – शोधन या  कालादि – शोधन की आवश्यकता नहीं है

जो इस मन्त्र के संबंध में शोधन – विचार करता है, उसका सबकुछ नष्ट हो जाता है और वह नरक में जाता  है । हे देवी ! इस मन्त्र की साधना में किसी प्रकार का  कष्ट  नहीं  होता  इसके द्वारा शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त होती है।

माता कामाख्या को प्रसन्न करने के लिए कामाख्या स्तुति की जाती हे और साथ साथ उसकी आराधना भी की जाती हे.

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