मेरे पास बहुत साधक मित्रो के मेल आते हे और कहते हे की गुरूजी में सिद्धि प्राप्त करना चाहता हु मुझे आप पुरे विस्तार से बताइए कैसे सिद्धि प्राप्त करे, में आज सभी साधक मित्रो के लिए मंत्र साधना के निर्देश बताने वाला हु आप सब हमारे बताये गई मार्गदर्शन पर चलकर और निदेश का पालन करके आप सिद्धि हासिल कर सकते हो,
तो चलिए विस्तार से जानते हे मंत्र साधना के निर्देश क्या हे उसका निति नियम क्या हे उसके बारे में विस्तार से चर्चा करते हे,
मंत्र साधना के निर्देश
१. मंत्र-साधना के लिए स्थान पवित्र, शुद्ध, स्वच्छ, शान्त, एकान्त, आवाज रहित होना चाहिए।
२. जिस स्थान पर बैठकर मंत्र साधना करना है, उस स्थान के रक्षक देवी देवताओं से पहले अनुमति लेकर ही वहाँ बैठना चाहिए।
३. मंत्र साधना के लिए आवश्यक सामग्री पास रखना चाहिए एवं किसी एक योग्य विश्वास पात्र व्यक्ति को अपने पास बैठाना चाहिए।
४.मंत्र-साधना के समय तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन अवश्य करना चाहिए एवं भूमि शयन करना चाहिए तथा सात्विक, अल्प, शुद्ध शाकाहारी भोजन करना चाहिए।
५. मंत्र साधना के दिनों में कषायों (क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि) का त्याग कर अच्छे विचारों को मन में लाकर प्रसन्न रहना चाहिए। जहां तक बन सके तो मौन रहना चाहिए।
६. मंत्र के जाप की जितनी संख्या निश्चित है, उतना संकल्प लेकर विधि पूर्वक करना चाहिए। जाप का संकल्प अधूरा नहीं छोड़ना चाहिए और न ही मंत्र के जाप के समय का परिवर्तन करना चाहिए।
७. यदि मंत्र साधना में कोई रक्षक देवी-देवता किसी प्राणी रूप या किसी अन्य रूप में साधना के समय सामने आ जाये, तो साधक को बिलकुल भी नहीं घबराना चाहिए।
८. मंत्र साधना में माला, आसन, धोती-दुपट्टा आदि कपड़े उसी रंग के उपयोग में लेना चाहिए जो विधि में बतलाये गये हों।
९, मंत्र की उपासना, साधना, आराधना, ध्यान, पूजन और जाप पूर्ण श्रद्धा-विश्वास पूर्वक करना चाहिए।
१०. मंत्र साधना के बीच यदि मलमूत्र के लिए जाना पड़े तो कायोत्सर्ग पूर्वक स्थान छोड़ें एवं ग्रहण करें तथा जाप के कपड़े पहनकर कभी भी मलमूत्र विसर्जन न करें। अर्थात् वस्त्रों की शुद्धि का पूर्ण ध्यान रखें।
११, मंत्र साधक को ओढ़ने-बिछाने के कपड़े सफेद रंग के उपयोग में लेना चाहिए या फिर जो रंग के वस्त्र जाप विधि में बतलाये हों वैसे ही कपड़े लेना चाहिए।
१२. मंत्र साधना में शुद्ध घी का दीपक अवश्य जलाना चाहिए, लेकिन बाई तरफ धूप रखना चाहिए और दाहिनी तरफ दीपक रखना चाहिए।
१३. प्रत्येक मंत्र साधना के लिए जो वस्त्र, आसन, माला, दिशा, समय, मुद्रा और दीपकादि दिया रहता है उसी के अनुसार जप करें।
१४. यदि मंत्र साधना में कोई निश्चित दिशा न बतलाई गई हो तो फिर पूर्व दिशा में मुख करके ही बैठना चाहिए।
१५. स्थान स्वच्छ व शुद्ध होना चाहिए। हर रोज झाडू लगाकर उसे गीले कपड़े से पौंछना चाहिए।
१६, अन्य व्यक्तियों के साथ वार्तालाप व उनका स्पर्श नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे दूषित परमाणुओं से पवित्रता नष्ट होती है।
१७. असत्य नहीं बोलना चाहिए, क्रोध नहीं करना चाहिए तथा जहाँ तक हो सके मौन रहना चाहिए।
१८. भोजन व पानी लेते समय मूल मंत्र से अभिमंत्रित कर ग्रहण करना चाहिए।
१९, जमीन पर ही सोना चाहिए। वह भी जहां पर साधना की जाय उसी के पास व नीचे कपड़ा या चटाई बिछाकर सोना चाहिए व अंधेरे में नहीं सोना चाहिए।
२०, हजामत नहीं बनानी चाहिए तथा गरम पानी से स्नान नहीं करना चाहिए, साबुन आदि का उपयोग नहीं करना चाहिए।
२१. किसी को शाप या आशीर्वाद नहीं देना चाहिए तथा किसी की भी निन्दा आलोचना नहीं करना चाहिए।
२२, मंत्र व मंत्र प्रदाता गुरु तथा परमात्मा पर पूर्ण आस्था रखना चाहिए तथा मंत्र-देवता व गुरु-प्रभु की उपासना श्रद्धा-भक्ति पूर्वक पूर्ण विश्वास से करनी चाहिए।
२३. मन्त्र को गुप्त रखना अर्थात् मंत्र किसी को भी नहीं बताना चाहिए अन्यथा मंत्र सिद्ध नहीं होता।
२४. जप की संख्या का परिमाण निश्चित कर लेना चाहिए, फिर प्रतिदिन उतनी ही जाप करना चाहिए। निश्चित संख्या से कम या अधिक जप नहीं करना चाहिए।
२५. प्रतिदिन निश्चित समय पर निश्चित स्थान पर बैठकर निश्चित संख्या में जाप करें।
२६, जाप करते समय प्रतिदिन दीपक अवश्य जलाकर रखें तथा सुगंधित अगरबत्ती या धूपबत्ती भी जलायें।
२७. मंत्र में जिस रंग की माला लिखी हो उसी रंग का आसन यानि बिस्तर या वस्त्र (धोती दुपट्टा) आदि श्रेष्ठ माना गया है।
२८. मंत्र संकल्प पूर्ण होने पर हवन अवश्य करें जितनी संख्या में जाप की हो उससे दशांस हवन करें तभी मंत्र आराधना पूर्ण मानी जाएगी।
२९. प्रमाद (आलसी) अवस्था में, अशान्त अवस्था में, व्याकुलचित्त अवस्था में जाप न करें।
३०. माला के शिखर वाले (मेरु के) तीन दानों का उल्लंघन करके जाप न करें।
३१. मंत्र जाप करते समय प्राण प्रतिष्ठित किया हुआ श्री महायंत्र अथवा मंत्रित श्री मंगल कलश, णमोकार मंत्र या जिनेन्द्र देव अथवा गुरु के चित्र (फोटो) को सामने रखकर जाप करें।
३२. सुआ-सूतक (सूतक-पातक) में भी जाप करना न छोड़ें। स्त्रियों को रजस्वला होने पर भी जाप करते रहना चाहिए। स्नान करने के पश्चात् मन्त्र का जाप मन में करें जोर से बोलकर न करें और न ही माला काम में ले।
३३. जप का संकल्प पूर्ण होने पर यथाशक्ति दान-पुण्य अवश्य करना चाहिए।
३४. सकलीकरण- मंत्र साधने के पहले सकलीकरण क्रिया अवश्य करें।
मंत्र साधना के निर्देश
सकलीकरण किसे कहते हैं ?
निर्विघ्न इष्ट कार्य की सिद्धि के लिये विद्या साधन के इच्छुक साधक की जिससे रक्षा होती है, वह क्रिया सकलीकरण कहलाती है।
निर्विघ्न इष्ट कार्य की सिद्धि के लिए अपनी रक्षा हेतु जो क्रिया की जाती है उसे सकलीकरण क्रिया कहते हैं।
मंत्रों के पंचोपचार- मंत्राधि देवताओं (मंत्र स्वामी के पांच उपचार कहे हैं-
आह्वाहन, स्थापना, सन्निधिकरण, अष्टद्रव्य से पूजन और विसर्जन।
आह्वानन- मंत्राधिदेवता के बुलाने को आह्वानन कहते हैं।
स्थापन-उन देवता या प्रतिबिंब के उचित स्थान में स्थापन करने को स्थापना कहते हैं।
सन्निधिकरण- देवता का पूजन करते समय साक्षात्कार करने को सन्निधिकरण कहते हैं।
पूजन- देवता का अभिषेक पूर्वक अष्ट द्रव्यों से अर्चन गुणानुवाद करने को पूजन कहते हैं।
विसर्जन-
उनको आदर सत्कारपूर्वक अपने स्थान पर भेजने को विसर्जन कहते हैं।
दीपक में घी व तेल का प्रयोजन- गाय के दूध के घी का दीपक सर्व सिद्धि कारक, भैंस के घी का मारण में, ऊंटनी के घी का विद्वेषण में, भेड़ के घी का शांतिकर्म में, बकरी के घी का उच्चाटन में, तिल के तेल का सर्वसिद्धि में, सरसों तेल मारण में प्रयोग किया जाता है।
बत्ती का महत्व-
वशीकरण में श्वेत बत्तियों का, विद्वेषण में पीत, मारण में हरी, उच्चाटन में केसरिया, स्तम्भन में काली, शान्ति के लिए सफेद रंग की बत्तियों का प्रयोग किया जाता है।
दिशा विचार- पूर्व दिशा में दीपक का मुख रखने से सर्व सुख की प्राप्ति, स्तम्भन, उच्चाटन, रक्षण तथा विद्वेषण में पश्चिम दिशा की ओर, लक्ष्मी प्राप्ति के लिए उत्तराभिमुख तथा मारण में दक्षिणाभिमुख दीपक रखना चाहिए।
कलश में वस्तुएं रखने का महत्व- सामान्यतः कलश को जल से भरते हैं। किन्तु विशेष प्रयोजन में विशेष वस्तुएं रखे जाने का विधान मिलता है। जैसे- धन लाभ हेतु मोती व कमल का प्रयोग करते हैं, विजय के लिए अपराजिता, वशीकरण के लिए मोर पंखी, उच्चाटन के लिए व्याघ्री, मारण के लिए काली मिर्च, आकर्षण के लिए धतूरा, भरने का विधान है।
मंत्र साधना के निर्देश
मंत्र-
विशिष्ट प्रभावक शब्दों द्वारा निर्मित किया हुआ वाक्य मंत्र कहा जाता है। उसका बार-बार जाप करने पर शब्दों के पारस्परिक संघर्ष के कारण वातावरण में एक प्रकार की विद्युत तरंग उत्पन्न होने लगती है जिससे साधक की इच्छित भावनाओं को बल मिलने लगता है। फिर वह जो चाहता है, वही होता है। मंत्रों की सिद्धि के लिए उनके हिसाब से जाप की विभिन्न मात्रा में शब्द, अंक तथा विभिन्न प्रकार के पदार्थों से बनी मालाएँ, विभिन्न प्रकार के फल-फूल, आसन, दिशाएं, क्रियाएं इत्यादि का भी विशेष महत्व होता है।
यंत्र-
जो किसी विशिष्ट प्रकार के कागज, पत्र या धातु पर, किसी विशिष्ट प्रकार के निर्धारित अंकों, शब्दों या आकृतियों को बनाकर विशेष प्रकार के मंत्रों से अभिमंत्रित किया जाता है उसे यन्त्र कहते हैं। फिर उस यंत्र को किसी ताबीज आदि में रखकर किसी
की बांह में बांध दिया जाता है या गले में लटका दिया जाता है अथवा किसी स्थान पर रख दिया जाता है अथवा चिपका दिया जाता है, जिससे कार्य सिद्धि होती है।
तंत्र-
तन्त्र का सम्बन्ध विज्ञान से है। इसमें कुछ ऐसी रसायनिक वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है, जिससे एक चमत्कार पूर्ण स्थिति पैदा की जा सके ; लेकिन किसी प्रकार के मंत्र-यंत्र-तंत्र के प्रयोग के लिए बारह प्रकार की शुद्धियों का होना आवश्यक है।
द्रव्यशुद्धि :-
पंचेन्द्रिय तथा मन को वश में करने के लिए, शरीर को स्वच्छ व निर्मल रखना द्रव्य शुद्धि है; लेकिन बाह्य द्रव्य शुद्धि के साथ अन्तरंग द्रव्य शुद्धि भी अनिवार्य है। अर्थात् जाप करने के पहले यथाशक्ति अपने अन्दर के विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मान, माया आदि) को हटाना आवश्यक है; क्योंकि यहां द्रव्यशुद्धि का अभिप्राय पात्र की अन्तरंग शुद्धि से है।
क्षेत्रशुद्धि :-
निराकुल स्थान, जहां किसी प्रकार का शोरगुल /आवाज न होती हो, डॉस- मच्छर आदि बाधक जन्तु न हों, चित्त में क्षोभ उत्पन्न करने वाले उपद्रव एवं शीत-उष्ण की बाधा न हो, ऐसा एकान्त निर्जन स्थान मंत्र साधना के लिए उत्तम है।अर्थात् शान्तप्रिय स्थान, जैसे-मन्दिर- चैत्यालय, नदी- सरोवर का किनारा, तीर्थक्षेत्र, अतिशय क्षेत्र, सिद्धक्षेत्र आदि मंत्र साधना के लिए उपयुक्त स्थान हैं।
समयशुद्धि :-
प्रातः, मध्याह्न और सन्ध्या समय मन्त्र-आराधना के लिए उपयुक्त समय है। वैसे कालशुद्धि के अन्तर्गत मन्त्र जाप का प्रारंभिक समय भी लिया जाता है। अतः शुभ-दिन, शुभ-तिथि, शुभ-नक्षत्र, शुभ-लग्न, शुभ-योग और शुभ- अमृत-लाभ चौघड़िया में जाप प्रारंभ करना चाहिए।
आहार शुद्धि :-
मंत्र-साधक का आहार सात्विक व परिमित होना चाहिए। क्योंकि राजसिक व तामसिक आहार से मंत्र साधना में मन नहीं लगता तथा प्रमाद आता है। अत: साधक को शुद्ध, शाकाहारी, सात्विक, भूख से कम भोजन लेना चाहिए।
संबंध शुद्धि :-
साधक को सच्चे आस्तिक लोगों के साथ रहना चाहिए जिससे उसका मंत्र एवं मंत्र प्रदाता पर विश्वास बना रहे; क्योंकि मंत्र या मंत्र प्रदाता पर विश्वास न होने से मंत्र सिद्ध नहीं होता।
आसन शुद्धि :-
काष्ठ, शिला, भूमि, चटाई या शीतलपट्टी पर पूर्वदिशा या उत्तर दिशा की ओर मुँह करके पद्मासन, अर्धपद्मासन, खड़गासन, या सुखासन पर स्थित
होकर क्षेत्र तथा काल का प्रमाण करके मौन पूर्वक जाप करना चाहिए।
विनयशुद्धि :-
जिस आसन पर बैठकर जाप करना हो, उस आसन को सावधानी पूर्वक ईर्यापथ शुद्धि के साथ साफ करना चाहिए तथा जाप करने के लिए नम्रता पूर्वक भीतर का अनुराग भी रहना चाहिए। क्योंकि जाप करने के लिए जब तक भीतर का उत्साह नहीं होगा, तब तक सच्चे मन से जाप नहीं किया जा सकता।
मन शुद्धि :-
विचारों की गन्दगी का त्याग कर मन को एकाग्र करना, चंचल मन इधर-उधर न भटकने पाये इसकी चेष्ठा करना, मन को पूर्णतया पवित्र बनाने का प्रयास करना ही इस शुद्धि में अभिप्रेत है।
वचन शुद्धि :-
धीरे-धीरे साम्यभाव-पूर्वक मन्त्र का शुद्ध जाप करना, अर्थात् उच्चारण करने में अशुद्धि न होने पाये इसका विवेक रखना वचन शुद्धि है। मन ही मन भी जाप किया जा सकता है।
कार्य शुद्धि :-
शौचादि क्रियाओं से निवृत्त होकर यत्नाचारपूर्वक शरीर को शुद्ध करके हलन-चलन रहित होकर जाप करना कार्यशुद्धि है।
मन्त्र शुद्धि :-
जिस मंत्र का जाप करना हो उसके बीजाक्षरों का मिलान करके देख लें कि गलत तो नही हैं, फिर शुद्ध उच्चारण पूर्वक त्रियोग से जाप करना चाहिए।
विधि-विधान शुद्धि-
पूर्व निर्धारित क्रिया पूर्वक जाप करना विधि-विधान शुद्धि है। अर्थात् जिस प्रकार की मंत्र-यंत्र-तंत्र में सिद्ध करने की क्रिया लिखी हो उसी प्रकार क्रिया करना विधि-विधान शुद्धि है।
यदि इस प्रकार की शुद्धि पूर्वक साधक साधना करता है तो नियम से सफल होता है। क्योंकि यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया भी है। वैसे मंत्र और विज्ञान दोनों में कुछ अन्तर भी है। जैसे विज्ञान का प्रयोग जहां भी किया जाता है, फल एक ही होता है। परन्तु मंत्र में यह बात नहीं है, उसकी सफलता साधक और साध्य के ऊपर निर्भर है। ध्यान के अस्थिर होने से भी मन्त्र असफल हो जाता है। मन्त्र तो तभी सिद्ध होता है जब श्रद्धा, इच्छा और दृढ़ संकल्प ये तीनों ही यथावत् कार्य करते हों। मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि मनुष्य की अवचेतना में बहुत सी आध्यात्मिक शक्तियाँ भरी रहती हैं और इन्हीं शक्तियों को मंत्र की ध्वनियों के संघर्ष द्वारा उत्तेजित किया जाता है। इस कार्य में केवल विचार शक्ति ही काम नहीं करती है, बल्कि इसकी सहायता के लिए उत्कृष्ट इच्छा शक्ति की इच्छा द्वारा ध्वनि संचालन की भी आवश्यकता होती है। और यह मैंने पहले ही कहा है कि मन के साथ जिन ध्वनियों का घर्षण होने से दिव्य ज्योति प्रकट होती है उन ध्वनियों के समुदाय को मंत्र कहते हैं। तो मंत्र शक्ति के प्रयोग की सफलता के लिए मानसिक योग्यता प्राप्त करनी पड़ती है, जिसके लिए नैष्ठिक आचार की आवश्यकता होती है।
मंत्र साधना के निर्देश
मंत्र निर्माण के लिए-
ओं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्र:, हं सः क्लीं क्लू ब्लू, द्रां द्रीं दूं द्रः, श्रां श्रीं धूं श्रौं श्रः, क्षां क्षीं शं क्षौं क्षः, क्ष्वी हैं अं फट् वषट्, संवौषट् घे घे यः ठः खः हल्वयूँ, पं वं यं णं तं थं दं आदि बीजाक्षरों की आवश्यकता होती है। साधारण व्यक्ति को तो ये बीजाक्षर निरर्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु हैं ये सार्थक और इनमें ऐसी शक्ति अन्तर्निहित रहती है, जिससे आत्मशक्ति या देवताओं को उत्तेजित किया जा सकता है। अतः ये बीजाक्षर अन्तःकरण और वृत्ति की शुद्ध प्रेरणा के व्यक्त शब्द हैं, जिनसे अत्यधिक शक्ति का विकास किया जा सकता है और बीजाक्षरों की उत्पत्ति प्रधानतः णमोकार मंत्र से हुई है, क्योंकि मातृका ध्वनियां इसी मंत्र से उद्भूत हैं। इन सबमें प्रधान ‘ओं’ बीज है, यह आत्मवाचक मूलभूत है। इसे तेजो बीज, कामबीज और भवबीज भी माना गया है।
पंचपरमेष्ठी वाचक होने से ‘ओं’ को समस्त मंत्रों का सारतत्त्व बताया गया है। इसे प्रणववाचक भी कहा जाता है।
श्रीं को कीर्तिवाचक, ह्रीं को कल्याणवाचक, क्षीं को शान्तिवाचक, हं को मंगलवाचक, ॐ को सुखवाचक, वीं को योगवाचक, हं को विद्वेषण और रोष वाचक, प्री को स्तम्भनवाचक और क्लीं को लक्ष्मी प्राप्ति वाचक कहा गया है। सभी तीर्थंकरों के नाम-अक्षरों को मंगलवाचक एवं यक्ष-यक्षिणियों के नामों को कीर्ति और प्रीति वाचक कहा गया है। आगम में बीजाक्षरों का वर्णन निम्न प्रकार से किया गया है- ॐ प्रणव, ध्रुव, ब्रह्मबीज या तेजो बीज है। ऐं वाग्भव बीज, लूं कामबीज, क्रों शक्ति बीज, हं सः विषापहार बीज, क्षीं पृथ्वी बीज, स्वा वायु बीज, हा आकाश बीज, ह्यं मायाबीज या त्रैलोक्यनाथ बीज, क्रों अंकुशबीज, जं पाश बीज, फट् विसर्जनात्मक या चालन- दूरकरणार्थक, वौषट् पूजाग्रहण या आकर्षणार्थक, संवौषट् आमन्त्रणार्थक, ब्लू द्रावणबीज, क्लौं आकर्षण बीज, ग्लौं स्तम्भन बीज, ह्रौं महाशक्तिवाचक, वषट् आह्वानन वाचक, रं ज्वलन वाचक, क्ष्वीं विषापहार बीज, ठ: चन्द्रबीज,घे घे ग्रहण बीज, द्रं विद्वेषणार्थक, रोष बीज, स्वाहा शान्ति और हवन वाचक, स्वधा पौष्टिक वाचक, नमः शोधन बीज, हं गगनबीज, हं ज्ञानबीज, यः विसर्जन या उच्चारण वाचक, नु विद्वेषणबीज, इवीं अमृत बीज, क्ष्वीं भोग बीज, हूँ दण्ड बीज, खः स्वादन बीज, झौं महाशक्ति बीज, हल्व्यूँ पिण्डबीज, वीं मंगल और सुख बीज, श्री कीर्तिबीज या कल्याण बीज, क्लीं धनबीज , कुबेरबीज, तीर्थंकर के नामाक्षर शान्तिबीज, ह्रौं रिधि-सिद्धि बीज, हां ह्रीं हूं ह्रौं ह्र: सर्व शान्ति, मांगल्य, कल्याण, विघ्न विनाशक, सिद्धिदायक, अ आकाश बीज, धान्यबीज, आ सुखबीज -तेजो बीज, ई गुणबीज, तेजोबीज, वायुबीज, क्षां क्षीं झू क्षों क्षौं क्षः सर्व कल्याण, सर्वशुद्धि बीज , वं द्रवणबीज , मं मंगल बीज, संशोधनबीज, यं रक्षाबीज, झं शक्ति बीज और तं थं दं कालुष्यनाशक, मंगल वर्धक और सुखकारक बीज बताया गया है। इन समस्त बीजाक्षरों की उत्पत्ति णमोकार मन्त्र तथा इस मंत्र में प्रतिपादित पंचपरमेष्ठी के नामाक्षर तीर्थंकर और यक्ष यक्षिणियों के नामाक्षरों से हुई है।
मन्त्र शास्त्र के बीजों का विवेचन करने के उपरान्त आचार्यों ने उनके रूप का निरूपण करते हुए बतलाया है कि – अ आ ऋ ह श य क ख ग घ ङ ये वर्ण वायुतत्त्व संज्ञक हैं। च छ ज झ ब इ ई ऋ अ र प ये वर्ण अग्नितत्त्व संज्ञक हैं। त ट द ड उ ऊ ण लु व ल ये वर्ण पृथ्वी संज्ञक हैं। ठ थ ध ढ न ए ऐ लू स ये वर्ण जलतत्त्व संज्ञक है एवं प फ ब भ म ओ औ अं अः ये वर्ण आकाश तत्त्व संज्ञक हैं और अ उऊ ऐ ओ औ अं क ख ग ट ठ ड ढ त थ प फ ब ज झ ध य स पक्ष ये वर्ण पुल्लिंग हैं। आ ई च छ ल व वर्ण स्त्रीलिंग और इ ऋ ऋ लु लू ए अ: घ भ य र ह द ज ण ङ ये वर्ण नुपंसक लिंग संज्ञक होते हैं। मन्त्र शास्त्र में स्वर और ऊष्म ध्वनियाँ ब्राह्मण वर्ण संज्ञक; अन्तस्थ और क वर्ण ध्वनियाँ क्षत्रिय वर्ण संज्ञक; च वर्ण और प वर्ण ध्वनियाँ वैश्यवर्ण संज्ञक एवं ट वर्ण और त वर्ण ध्वनियाँ शूद्रवर्ण संज्ञक होती हैं। वश्य, आकर्षण और उच्चाटन में हूँ का प्रयोग; मारण में ‘फट’ का प्रयोग; स्तम्भन, विद्वेषण और मोहन में, नमः का प्रयोग एवं शान्ति और पौष्टिक के लिए ‘वषट्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। मन्त्र के अन्त में स्वाहा शब्द रहता है। यह शब्द पापनाशक, मंगल कारक तथा आत्मा की आन्तरिक शान्ति को उद्घाटित करने वाला बतलाया गया है। मन्त्र को शक्तिशाली बनाने वाली अन्तिम ध्वनियों में स्वाहा को स्त्रीलिंग; वषट्, फट्, स्वधा को पुल्लिंग और नमः को नपुंसक लिंग माना है।
इस तरह साधक मंत्र साधना के निर्देश का पालन करके सिद्धि प्राप्त कर सकता हे और तांत्रिक कार्य कर सकता हे.
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