शिवमहिमास्त्रोतम

शिव जी को प्रसन्न करने के लिए साधक शिव स्तुति शिव की आराधना और शिव का शक्तिशाली शिवमहिमास्त्रोतम का पाठ  कर सकता हे, शिव एक ऐसी शक्ति हे इसकी आराधना साधना खुद भगवान् करते हे, रावण और राम भी शिव की उपासना करके शिवजी को प्रसन्न किया था,

शिवमहिमास्त्रोतम

शिव का शक्तिशाली शिवमहिमास्त्रोतम

मतिम      पार     ते     परमविदुध     यसरी

स्तुति     मादी   नाम    पितदवसत्रामपि   गिः॥

अपादाय      सर्वस्व    मतिपरिणामावपि  गृणन्।

अतीत     पंधानं    तवय    महिना  वामनरायो।

अतथावृत्यायं      पक्तिम    भियते     तिरपि।।

सकस्य     सोम-तिविधगुण      कस्य   विषयः।

पदे     सर्वधीने     यातिनमन     कल्यनवः॥२॥

माधुकीता      वाय     परमम्मत     निर्मितयः।

तब     न    कि    पापि    सुरगुर  मिपपदम्।।

मन    सेतो    वाणी    गुणकथनपुण्पेन    भवः।

पुनमीत्यर्थेस्मिन्      पुरमयन  बुद्धिमवसितः।। ३।।

तदेव       याम     गदु   दयरम   मत    पदा

प्रस्तुत       गतिमा       गुणभिमान     जाए।

अभव्यानाममिलन       याद     रमागीयामरमानी

वितन्तुं    ब्याकोशी   विद्रया इलेके अरधिपः ।।४।।

जिमीहः       शिवाय     शतु     किमुपसिभुक्ता

किमाघरी   धाता   सूअति   विमुपादान  इति च।।

कुतोयं   मयित्   मुखरपटि  मोहाय  जन्मतः।।५।।

भावानी   तक  अपिता   कि  भविधिरनाटय   मत

अनीगो   या   कृपाद   भुवनानने   क   परिकरो।

पती     मन्दाला     प्रत्यारवर    शेरत    इमे।।

अपी    माझा   पोमः    पशुपतिमा   वैष्णमिति।

प्रति    प्रस्थाने    परमिदमदः   पथ्यनिति   था।

सवि         नाटिल         नाना       पनुषा।

मृणमेको    गम्य  सवमसि   पयसामर्णव इव।।५।।

महोक्षः    खदाग   परशुरजिन   भस्म   फणिनः।

कपाल    चेतीयत्तव    वरद   तन्त्रो   पकरणम्।।

सुरास्ता    तामृद्धि   दधति   तु   भवद्भूप्रणिहिता।

न   हि  स्वात्मारामं विष यमृगतृष्णा भ्रमयति।।८।।

ध्रुवं     कश्चित्    सर्वं    सकलमपरस्त्वधुवमिद।

परो    ध्रौव्याधोव्ये  जगति  गदति  व्यस्तविषये।।

समस्तेप्येत   स्मिन्  पुरमधन   तैर्विस्मित   इव।

स्तुवन्  जिहेमि  त्वां न खलु ननु घृष्टा मुखरता॥९॥

तवैश्वर्यं    यत्नाद्     यदुपरि     विरिचिहरिरथः।

परिच्छेतुं      यातावनिलमनल   स्कन्ध   वपुषः।।

ततो  भक्तिश्रद्धा-भरगुरु- गृणन्द्रयां   गिरिश   यत्।

स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति।। १०।।

अयनादापाद्य       त्रिभुवन       मवैरव्यतिकर।

दशास्यो    यद्वाहूनभृत-   रणकण्डू-   परवशान्।।

शिरः     पद्मश्रेणी-    रचितचरणाम्भोरुह-    बलेः।

स्थिरायास्त्वद्रक्तेस्त्रिपुरहर   विस्फूर्जितमिदम्।। १।।

अमुष्य     त्वत्सेवा-    समधिगतसार    भुजवन।

बलात्   कैलासेपि    त्वदधिवसतो    विक्रमयतः।।

अलभ्या     पातालेप्य    तसचलितांगुष्ठ  शिरसि।

प्रतिष्ठा  त्वय्यासीद ध्रुवमुपचितो मुहाति खलः।।१२।।

यदृद्धि    सुत्राम्णो   वरद    परमोच्चैरपि   सतीं।

अधश्चक्रे    बाणः     परिजन विधेय   त्रिभुवनः।।

न   तच्चित्रं   तस्मिन्   वरिवसितरि त्वच्चरणयोः।

न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः।। १३।।

अकाण्ड-    ब्रह्माण्ड-   क्षयचकित  -देवा  सुरकृपा-

विधेयस्यासीद    यस्तिनयन    विषं   सहतवतः।।

स   कल्माषः   कण्ठे  तव  न  कुरुते न श्रियमहो।

विकारोपि   श्लाघ्यो भुवन-भय-भंग-व्यसनिनः।।१४।।

असिद्धार्था    नैव    कचिदपि     सदेवा   सुरनरे।

निवर्तन्ते  नित्यं  जगति  जयिनो यस्य विशिखाः।।

स     पश्यन्नीश     त्वामितर  सुरसाधारणमभूत्।

स्मरः    स्मर्तव्यात्मा   न   हि   वशिषु   पथ्यः परिभकः  ।।१५।। मही  पादाघाताद  व्रजति  सहसा संशयपदा पद  विष्णोर्भाग्यद  भुज-परिध- रुमा- ग्रह-गणम्।।  मोदीस्थ्य  यात्यनिभूत- जटा-ताडित- तटा।

जगद्रवाये  व  नटसि  ननु  वामेव   विभुता।।१६।।

विषयापी    तारा-   गण-  गुणित- फेनोद्रम- रुथिः।

प्रवाहो   वारी   यः   पृषतलधुरष्टः   शिरसि  ते।।

जगद्दयीपाकार     जलधिवलयं    तेन   कृतमिति।

अनेनेवोन्नेयं   धृतमहिम   दिव्यं  तव वपुः।। १७।।

स्था   क्षोणी  यन्ता   शतधृतिरगेन्द्रो   धनुरथयो।

रांगे    चन्द्रार्को   रथ-  चरण-पाणिः  शर   इति।।

विधक्षोस्ते    कोयं     त्रिपुरतृणमाडम्बर   विधिः।

विधेयः  क्रीडन्यो  न खलु परतन्ताः प्रभुधियः।। १८॥

हरिस्ते   साहसं   कमल    बलिमाधाय    पदयोः।

यदेकोने   तस्मिन्    निजमुदहर  क्षेत्र   कमलम्।।

गतो     भक्त्युदेकः     परिणतिमसो   चक्रवपुषः।

अपाणां   रक्षायै   त्रिपुरहर  जागर्ति जगताम्।।१९।।

कती   सुप्ते  जाग्रत्  त्वमसि  फलयोगे  क्रतुमता।

क    कर्म   प्रध्वस्त    फलति   पुरुषाराधनमृते।।

अतस्वा    सम्प्रेक्ष्य   क्रतुषु   फलदान-  प्रतिभुवं।

श्रुती   श्रद्धा   बघ्या दृढपरिकरः कर्मसु जनः।। २०॥

क्रियादक्षो    दक्षः    क्रतुपतिरधी  शस्तनु   भृतां।

ऋषीणामाविज्यं   शरणद   सदस्याः    सुर-गणाः।।

क्रतु    शस्त्वत्तः    क्रतुफल-  विधान-   सनिनः।

धुर्व  कर्तुं  श्रद्धा  विधुरमभिचाराय  हि मशाः।। २१।।

प्रजानार्थ     नाथ   प्रसभमभिक   स्वां   दुहितर।

गत   रोहिद    भूतो   रिरमपिषुमृष्यस्य   वपुषा।।

धनुष्पाणेर्यात      दिवमपि     सपत्रा    कृतमम्।

प्रसन्त   तेद्यापि त्यजति न मृगव्याधरमसः।। २२।।

स्वतावण्याशंसा     पत   धनुष   मवाय  तृणवत्।

पुरः    शुष्ट   राष्ट्रा    पुरमथन    पुमायुधमपि।।

पदि   क्षेण   देवी    यमनिरत-  देहार्थ   घटनात्।

अवेति   वामदाबत   वरद   मुग्धा  युवतयः।। २।।

श्मशानेष्वाक्रीडा     स्मरहर   पिशाचाः   सहचराः।

चिता-  भस्मालेपः   स्रगपि   नकरोटी-   परिकरः।।

अमंगल्य    शीलं   तव    भवतु    नामैवमखिल।

तथापि   स्मर्तृणां   वरद   परम मंगलमसि।। २४।।

मनः   प्रत्यक   चित्ते   सविधमविधायात्त-मरुतः।

प्रहष्यद्रोमाणः    प्रमद-   सलिलोत्संगति-   दशः।।

पदालोक्याहार्द     हद    इव     निमज्यामृतमये।

दधत्यन्तस्तत्त्व  किमपि  यमिनस्तत् किल भवान्।। २५।।

त्वमर्कसर्व     सोमस्वमसि    पवनस्त्वं   तुतवहः।

त्वमापस्त्वं   व्योम  त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।।

परिच्छिन्नामेव   त्वयि   परिणता  बिभ्रति   गिर।

न  विद्यास्तत्तत्त्व  वयमिह तु यत् त्वं न भवसि।। २६।।

त्रयी   तिस्रो   वृत्तीस्तिभुवनमथो   त्रीनपि  सुरान्।

अकाराद्यैर्वर्णस्तिभिरभिदधत्     तीर्ण    विकृति।।

तुरीयं   ते    धाम   ध्वनि   भिरवरुन्धानमणुभिः।

समस्त-व्यस्त   त्वा  शरणद  गणात्योमिति पदम्।। २७।।

भवः   शर्वो   रुद्रः   पशुपतिरथोग्रः   सह  महान्।

तथा   भीमे  शानाविति    यदभिधानाष्टकमिदम्।।

अमुष्मिन्    प्रत्येक   प्रविचरति   देव   श्रुतिरपि।

प्रियायास्मैधाने   प्रणिहित-नमस्योस्मि  भवते।।२८।।

नमो   नेदिष्ठाय   प्रियदव   दविष्ठाय  च  नमः।

नमः   क्षोदिष्ठाय   स्मरहर  महिष्ठाय  च नमः।।

नमो   वर्षिष्ठाय  त्रिनयन   यविष्ठाय  च   नमः।

नमः   सर्वस्मै  ते  तदिदमतिसर्वाय च नमः।। २९।।

बहुल- रजसे  विश्वोत्पत्ती,   भवाय   नमो   नमः।

प्रबल- तमसै   तत्   संहारे   हराय   नमो नमः।।

जन-  सुखकृते   सत्त्वौद्रिक्ती,   मृडाय  नमो नमः।

प्रमहसि  पदे  निस्वैगुण्ये,  शिवाय नमो नमः।।३०।।

कृश-    परिणति-चेतः    क्लेशवश्यं   क    चेद।

क   च   तव   गुण-सीमोल्लंधिनी    शश्वदृद्धिः।।

इति    चकितममन्दीकृत्य     मां    भक्तिराधाद।

वरद     चरणयोस्ते    वाक्य  पुष्पोपहारम्।। ३१।।

असित-गिरि   सम   स्पात   कजल   सिन्न-पात्रे।

सुर-     तरुवर-    शाखा    लेखनी    पत्रमुर्वी।।

लिखति    यदि    गृहीत्वा    शारदा    सर्वकाल।

तदपि   तव   गुणानामीश   पार  न याति।। ३२।।

असुर-   सुर-    मुनीन्द्रर    र्चित स्पेन्दु-   मले।

ग्रथित-     गुणमहिम्रो    निर्गुण     स्येश्वरस्य।।

सकल-   गण-   वरिष्ठः पुष्प   दन्ता    भिधानः।

रुचिरमल     धुवृत्तः स्तोत्र     मेतच्चकार।। ३३।।

अहरहरनवयं        धूर्जटः      स्तोत्र     मेतत्।

पठति    परम   भक्या शुद्ध-  चित्तः पुमान्  यः।।

स     भवति    शिव लोके   रुद्रतुल्य    स्तथात्र।

प्रचुरतर-   धनायुः  पुत्रवान्    कीर्ति  माक्ष।। ३४।।

महेशान्नापरो   देवो   महिम्रो   नापरा    स्तुतिः।

अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्।। ३५।।

दीक्षा   दान   तपस्तीर्थ   ज्ञान यागादिकाः क्रियाः।

महिम्नस्तव  पाठस्य  कला नाहन्ति षोडशीम्।।३६।।

कुसुमदशन-    नामा   सर्व-    गन्धर्व-    राजः।

शशि      धरवर-   मौलेर्देव     देवस्य   दासः।।

स   खलु   निज-महिम्रो   भ्रष्ट   एवास्य  रोषात्।

स्तवन  मिदमकार्षीद   दिव्य-दिव्यं महिम्नः।। ३७।।

सुरगुरु    मभि   पूज्य   स्वर्ग-   मोक्षक-   हेतु।

पठति    यदि    मनुष्यः   प्रांजलिनान्य-  चेताः।।

व्रजति   शिव-  समीपं    किन्नरैः   स्तूय  मानः।

स्तवन   मिदममोघं पुष्प   दन्त   प्रणीतम्।। ३८।।

आसमाप्तमिदं   स्तोत्रं   पुण्यं   गन्धर्व- भाषितम्।

अनौपम्यं   मनोहारि   सर्व   मीश्वरवर्णनम्।। ३९।।

इत्येषा    वाङ्मयी   पूजा   श्रीमच्छकर-  पादयोः।

अर्पिता   तेन   देवेशः   प्रीया में सदाशिवः।। ४०।।

तव    तत्त्वं   न   जानामि  कीदशोसि  महेश्वर।

यादशोसि   महादेव   तादृशाय   नमो  नमः।। ४।।

एककालं   द्विकाल  वा   त्रिकालं   यः  पठेन्नरः।

सर्वपाप-  विनिर्मुक्तः   शिव  लोके महीयते।। ४२।।

श्री     पुष्पदन्त-     मुख-    पंकज-   निर्गतन।

स्तोत्रेण      किल्बिष  -हरेण    हर-    प्रियेण।।

कण्ठ        स्थितेन     पठितेन     समाहितेन।

सुप्रीणितो    भवति    भूत   पति  महशः।। ४३।।

।। इति  श्री  पुष्पदन्त  विरचितं शिवमहिमास्त्रोतम सम्पूर्णम्।।

इस तरह साधक शिव का शक्तिशाली शिवमहिमास्त्रोतम का पाठ करके शिव को प्रसन्न कर सकता हे और उसको सिद्ध कर सकता हे.

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